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१६६ . विचारमोला. वि.. तिनोंका फल ब्रह्मात्माका अभेद निश्चयरूप विचार, सो या ग्रंथमें हमने भली प्रकार कह्या है ॥३२॥
(९७) अब ग्रंथका असाधारण अधिकारी कहे हैं:दोहा-बँध्यो मान चाहत छुट्यो, यह निश्चय मनमाहिं ॥ विचारमाल तापर रची, अज्ञतज्ञ पर नाहिं ॥३३॥
टीकाः यद्यपि अधिकारी पूर्व कहा है, इहां कहनेका कछु प्रयोजन नहीं, तथापि सो भाषा औ शारीरकादि संस्कृत वेदांतग्रंथोंका साधारण कहा है औ इहां। वक्ष्यमाण अभिप्रायसे या भाषा ग्रंथका असाधारण अधिकारीके कथन अभिप्रायसे पुनः कहा है । सो अभिप्राय यह हैः-मैं अविद्या तत्कार्यकर बंधायमान हूं यातें किसी प्रकारसे छूटें, यह निश्चय जाके अंतःकरणमें है औ शारीरादि संस्कृत ग्रंथोंके विचारनेमें सामर्थ्य नहीं, ऐसा जो मंदबुद्धिवाला मुमुक्षु है, तापर यह विचारमाला ग्रंथ है । अज्ञ जो विषयी औ पामर हैं औ तज्ञ जो ज्ञातज्ञेय विद्वान हैं तिनपर नहीं ॥ ३३ ॥