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विचारमाला. वि०६. . क्रांति अनंत ॥ है नहीं कहत नहीं बने, ऐसो जग दरसंत ॥१९॥ टीका-जैसे अमोलिक जो रत्नमणि, तामें जो अनंत कांति प्रतीत होवै हैंसो ता रत्नमणिते भिन्न हैही नहीं तो तिनकी निवृत्ति कहना कैसे बने । तैसे . ब्रह्ममें जगत हैही नहीं तो ताकी निवृत्ति कैसे कहैं। जो कहो वेदांतशास्त्रमें तत्त्वज्ञानसे जगतकी निवृत्ति कही है ? सो नित्य निवृत्तकी निवृत्ति कही है। जैसे र ज्जुमें सर्प नित्य निवृत्त है, तथापि ताके ज्ञानसँ नित्य । निवृत्त सर्पकी निवृत्ति होवै है ॥ १९ ॥
पूर्व कहे अर्थकू अन्य दृष्टांतकर दृढ करै हैं:दोहा-कहि अनाथ कासों कहों, आद्य मध्य अरु अंत ॥ज्यों रविमं नही पाइये, निशिवासरको तंत ॥२०॥
टीका:-स्वामी अनाथजी कहे है अधिष्ठान चेतनमें जगत् स्वरूपसे है नहीं तो, ताके उत्पत्ति औ