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वि० ७. शिष्यअनुभवर्णन. १२७ स्थिति औ नाश कैसे कहैं। जैसे सूर्यमें रात्रि औ दिनका स्वरूप नहीं पाईता तो, तिनकी उत्पत्ति आदिक कैसे बनै ॥ २०॥ दोहा-षष्ठम जगत असत कहत,भयोस अंतर ध्यान ॥ सहविलास अज्ञान हत, नष्ट होत जिमि ज्ञान ॥२१॥ इति श्रीविचारमालायां जगन्मिथ्यावणनं नाम
षष्ठो विश्रामः समाप्तः ॥६॥ अथ शिष्यअनुभवर्णनं नाम सप्तमविश्रामप्रारंभः ॥७॥ (७६) अब सप्तम विश्राममें गुरुके प्रति नमस्कार करके शिष्य, गुरुकृत उपकारको सूचन करता हुआ, गुरुद्वारा ज्ञात अर्थको प्रगट करे है:
शिष्य उवाच । दोहा-वारंवार प्रणाम मम, श्रीगुरुदीन. दयाल॥जगतभ्रम बहुनास्यो, सुनितव वचन रसाल॥१॥