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१२८. विचारमाला. वि० ७.
टीका:-हे दयालो श्रीगुरो ! करुणारसके सहित आपके वचनको श्रवण करके, जगतरूप भ्रम मेरा निवृत्त भया है, ताते आपके प्रति वारंवार मेरा नमस्कार है । ननु गुरुद्वारा अमोलक तत्त्वज्ञानको पाइकर कोई अपूर्व पदार्थ भेट धन्य चाहिये, केवल नमस्कार उचित नहीं ? सो शंका बने नहीं: काहेते या प्रपंचमें दो पदार्थ हैं, एक अनात्म पदार्थ है, अपर आत्म पदार्थ है । तिनमें अनात्म पदार्थ असत जड दुःखरूप हो। नेते अति तुच्छ है, देने योग्य नहीं, अपर जो आत्मपदार्थ है, सो गुरुके प्रसादते प्राप्त भया है, तामें प्रदानादिक्रियाके अभावते भी दिया जावै नहीं । याते नमस्कारही बने है ॥ १॥
पुनः गुरुकृत उपकारको शिष्य प्रगट करे है:दोहा-भो भगवन तुम मयाते, भयो विविगत संदेह ॥ शुद्ध स्वरूप लह्यो भले. विसयो देह अदेह ॥२॥