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वि० ७. शिष्यअनुभववर्णन
· टीका-हे भगवन् ! आपके प्रसादते प्रमाण प्रमे, यगत संदेहते रहित, सर्व विकारशून्य, चैतन्य, आनंदरूप, आत्माको भली प्रकार मैने जान्या हैं । जो पूर्व विस्मरण भया था। अब देहमें स्थित हुआभी देहसंबंधते रहित हूं. जैसे मथन कर दधिसे पृथकू किया नवनीत; तकमें स्थित हुआ भी तासे भिन रहे है ॥२॥
(७७) अब शिष्य, अपना अनुभव प्रगट करे है:दोहा-अज्ञ तज्ञ नहिं शुभाशुभ, नहिं ईश्वर नहिं जीव ॥ सत्य झूठ भोमें नहीं, अमल समल त्रिय पीव॥३॥
टीका:-हे भगवन् ! ना मैं अज्ञानी हूं, काहेते अज्ञान जाको होवै सो अज्ञ कहिये है औ ज्ञान जाको होवै सो ज्ञानी कहिये है। सो अज्ञानादि सप्त अवस्था आभासकी हैं, सो चिदाभासरूप जीव मैं नहीं, याते विधिनिषेध भी मुझपर नहीं । जीवत्वके अभावते मायामें आभासरूप ईश्वर भी मुझपर नहीं, काहेते सत्