________________
१३० विचारमाला.
वि०७ स्वरूप मुझमें मिथ्या पदार्थ कैसे बने? शुद्ध अंतःकरणा जिज्ञासु औमलिन अंतःकरणरूप विषयी भी मैं नहीं। औ स्त्री पुरुष भाव भी मुझमें नहीं, स्थूल शरीरका धर्म होनेते ॥३॥ ___ पुनः स्थूलशरीरनिष्ठ धर्मोंका आत्मामें अभाव दिखावै है:दोहा-आश्रम बरन न देव नर, गुरुसिख धर्म न पाप ॥ पूरण आत्मा एक रस, नहिं घट बढ़ माप अमाप ॥४॥ ।
टीकाः ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, औ संन्यासः ए चतुर् आश्रम औ ब्राह्मणादि चार वर्ण, देवभाव औ मानुषभाव औ गुरुशिष्यभाव औ पुण्यपापरूप क्रिया, ए समग्र स्थूल शरीरका धर्म होनेते मुझमें नहीं; काहेते मैं पूर्णात्मा औ अविकारी हूं, वृद्धि औ क्षयसे रहित हूं औ हस्वदीर्घ भावते भी रहित हूं। यही ध्यानदीपमें कहा है:-" वर्णाश्रमादि धर्म, देहविषे मायाकर कल्पित हैं। बोधरूप आत्माके नहीं, यह विद्धानका निश्चय है"४