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शिष्यअनुभववर्णन.
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अब सूक्ष्मशरीरादि प्रपंचका आत्मामें अभाव
दिखावे हैं:
दोहा - मन बुद्धि इंद्रिय प्राण नहिं, पंचभूत हू नाहिं ॥ ज्ञाता ज्ञान न ज्ञेय कछु, नहिं सब ई सबमाहिं ॥ ५ ॥ टीका:-मनआदि सप्तदश अवयवरूप लिंगशरीर औ आकाशादि पंचभूत औ साभास अंतःकरणरूप 'ज्ञाता औ अंतःकरणका परिणाम साभास वृत्तिरूप ज्ञान औ घटादि विषयरूप ज्ञेय, ए संपूर्ण मेरे आत्मामें वास्तव नहीं और मैं सर्वमें स्थित हूं । सो गीता में कहा है:- " योगकर जीत्या है मन जिसने, सो महात्मा, सर्व भूतों में अपने आत्माकूं स्थित देखता है औ सर्व भूतों को अपने आत्मामें अभिन्न देखता है " ||५|| सोरठा - मैं चैतन्य स्वरूप, इंद्रजालवत
.वि० ७.
जगत यह ॥ मैं तू कथा अनूप, यह वह कहत न संभवे ॥ ६ ॥