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वि० ६. जगन्मिथ्यावर्णन १२५
टीका:-तीन दोहोंका अर्थ स्पष्ट भाव यह है। जैसे काष्ठका औ वस्त्रमें पुतलियोंके युद्धका परस्पर कछु संबंध नहीं; तैसे काष्ठस्थानापन्न शुद्ध ब्रह्ममें, काष्ठमें चरखेकी न्याई कल्पित माया औं तामें कार्यकी अभिमुखतासे तमोप्रधानतारूप फेर औ तामें तूलस्थानीय पंच आकाशादि सूक्ष्म भूत, तिनते सूत्रस्थानीय पंच स्थूल भूत, तिनमें ताने पेटे स्थानी पचीस प्रकृति, तिनते चतुर्दश लोकरूप वस्त्र तामें पुतलियां स्थानी देव मनुष्यादि चार खानोंमें होनेवाले शरीर, तिन शरीरोंके जन्मादि विकार असंग ब्रह्ममें संभवॆ नहीं: जो कहो अज्ञानी तामें कल्पना करे हैं ! तहां सुनोःजैसे सूर्यमें उलूकर कल्पे अंधकारसे सूर्यकी क्षति नहीं, तैसे अज्ञोंकर कल्पित विकारोंसे ब्रह्मकी शुद्धता बिगरे नहीं ॥ १६ ॥ १७ ॥ १८॥ _ (७५) ननु जगत् हैही नहीं तो अधिष्ठानज्ञानते निवृत्त क्यो होवै है ? तहां सुनोःदोहा-ब्रह्म रतन निर्माल निज, तामें