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विचारमाला
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वि० ६. है तथापि जैसे कंचनमें अनन्यरूप मोहरते संख्या परिमाण त्याग आदानादि व्यवहारकी सिद्धि होते है तैसे आत्मासे अनन्यरूप देहादि व्यवहारकी सिद्धि होवे है । अन्य स्पष्ट ॥ १५॥
ननु अधिष्ठानसे अनन्यरूप देहादि पदाथोंसे व्यवहार सिद्धि होवै तो अधिष्ठान विकारी हुआ चाहिये ? सो शंका बने नहीं:- काहेते शुद्ध ब्रह्मरूप अधिष्ठानसे देहादिकोंका संबंध नहीं, यह कहे हैं:दोहा-काष्ठमें रहिटा भयो, रहिटामेंभयो फेर ॥ पोतूल ताफेरमें, भयो सूतकोढेर ॥ १६ ॥ वसन भयो तासूतमें, पूतरिवसन मझार॥ आपसमें पूतारि सबै, करत परस्पर रार॥ १७॥ काष्ठको अरु रारको, कहो कहा संबंध,तन विकारयों ब्रह्ममें, कल्पै प्राणी अंध॥१८॥