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वि०:७०
शिष्यअनुभववर्णन.
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दोहा - एकह कहत बने नहीं, दोइ कहाँ किहि भाय ॥ पूरणरूप विहायसी, घट बढ़ कह्यो न जाय ॥ १४ ॥
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टीका :- एकत्व संख्यावाचक एकशब्दकीही नाम जाति गुण क्रियाके अभावतें ब्रह्ममें प्रवृत्ति बनै नहीं, तो द्वित्वसंख्यावाचक दो शब्दकी प्रवृत्ति कैसे बने ? काहे गुण क्रिया आदिकही शब्द प्रवृत्तिके निमित्त हैं, सो बमैं नहीं, याते जैसे होवे तैसे पूर्णरूपको त्यागकर अ धिक न्यून भाव ब्रह्ममें कह्या जावै नहीं ॥ १४ ॥
अब त्रिते शरीर औ अवस्थाके अभिमानी विश्वा दिकों का आत्मामें निषेध करे हैं:
दोहा - विश्व न तैजस प्राज्ञ कछु नहि तुरिया तामाहिं ॥ स्वस्वरूप निजज्ञानघन, मैं तू विव तहँ नाहिं ॥
१५ ॥
'टीका:- तुरीय नाम साक्षीका है । अन्य स्पष्ट १५ (८१) अब उक्त अर्थ में शंकाको कहे हैं:
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