________________
वि० १०
विचारमाला :
•
प्राण इन सबतें अधिक है; माता आदि काहेते सर्व जन्मद्वारा सातिशय आदि अनेक दूषणकर दूषित जो विषयसुख ताके देनेवाले हैं औ गुरुज्ञानद्वारा निरतिशय जो मोक्षसुख, तिसके देनेवाले हैं. इति भावः ॥५॥ पुनः स्तुति कहै हैं:
दोहा - प्रगट हमि गुरु सुरति, जन मन नलिन प्रकाश ॥ अनाथ कुमोदनि विमुख जन, कबहु नहोत हुलास॥ ६ ॥ टीका:- अनाथदासजी कहै हैं:- सूर्यवत प्रकाशतेहुए गुरु पृथ्वीतलमैं प्रसिद्ध हैं, क्या करके प्रकाशते - हुए ? जिज्ञासु जनों के हृदयरूप कमलोंको अपने वचनरूप किरणोंकर प्रफुल्लित करते हुए, अनधिकारी ज नरूप जो कुमोदिनियां सो कभी आल्हादकूं पावैं नहीं । जैसें सूर्यके उदय हुए उल्लूककों प्रकाश होवे नहीं तेलें ॥ ६ ॥
अब गुरुकृत उपकारको अन्वय व्यतिरेकद्वारा दो दोहोंकरि, दिखावे हैं: