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वि० १. शिष्यआशंका
दोहा-टेरत सद्गुरु मयाकरि, मोहनींद सोवंत ॥ जग्यो ज्ञानलोचन खुलै, सुपनो 'भ्रम बिसरंत ॥ ७॥
टीका:-कृपाकर गुरोंके टेरेत कहिये तत्त्वका उपदेश करतेही ज्ञान जग्यो कहिये स्वरूपज्ञान निरावरण भयो, जो मोह कहिये अज्ञानकरि आवृत था; इहां आवृतपदका अध्याहार है । यामैं गीतांवचन प्रमाण है:"अज्ञानकरि आवृत जो स्वरूपज्ञान तिसकर जीव मोहित होवे हैं " अब इसका फल कहै हैं:-भ्रम बिसरंत कहिये अहंकारादि अध्यासकी निवृत्ति होवै है । दृष्टांतः-- जैसे निद्रासैं उठे पुरुषका नेत्रके खुलनेसैं स्वप्न अध्यास निवर्त होवे है॥७॥ दोहा-गुरुबिन भ्रमलग भूसियो, भेदलहे बिन स्वान। केहरि बपु झांई निरखि, पयो कूप अज्ञान ॥८॥ . टीका:-गुरुकी प्राप्तिसैं विना अद्यपर्यंत भ्रमलग