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________________ वि० १. १० विचारमाला. कहिये भ्रमरूप शरीरं दोमें अध्यास करके भूस्यो कहिये मैं जन्मता मरता हों, कर्ता भोक्ता हों, सुखी दुःखी हों, ऐसें अन्यथा वकता भया । दृष्टांतः-जैसे कूकर, शीसमहलमैं प्रविष्ट हुआ अपने प्रतिबिंबोंको आपसे भिन्न मानकर भूसे तैसे ! अन्य दृष्टांतः-जैसे उन्मत्त सिंह, कूपजलमें अपने प्रतिबिंबोंको देखके अपने स्वरूपकुं न जानकर कूपमें गिरे तैसे ॥८॥ ननु ऐसे गुरु कहीं परोक्ष होवैगे ? यह शंकाकर दोहा-प्रगट अवनि करुनारनव, रतन ज्ञान विज्ञान ॥ वचन लहरि तनुपरसते, अज्ञो होत सुजान ॥९॥ टीका:-करुणाके समुद्र गुरु पृथ्वीपर प्रगट हैं । समुद्रकी जो उपमा दई गुरोंको तामें हेतु कहे हैं:-लहरी स्थानापन्न वचनोंका तनु परसते कहिये श्रोत्रंद्रियसे संबं. ध होते ही, रत्नस्थानापन्न ज्ञानविज्ञानद्वारा अज्ञो कहिये अज्ञानी जीव ते सुजान कहिये परमेश्वररूप होवे हैं।।९।।
SR No.007743
Book TitleVicharmala Granth Satik Pustak 1 to 8
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnathdas Sadhu, Govinddas Sadhu
PublisherGujarati Chapkhana
Publication Year1832
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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