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. वि० १.
शिष्यआशंका.
११
ननु गुरोंकी कृपातैही ज्ञानप्राप्ति होवे तो वैराग्यादि ज्ञानके साधनों का कथन निष्फल होवैगा ? या शंकाके होयां कहै हैं:
दोहा - सूर दरस आदरस ज्यों, होत अग्नि उद्योत ॥ तैसे गुरुप्रसादतै, अनुभव - निरमल होत ॥ १० ॥
टीका :- दृष्टांत :- जैसे रविके दर्शन ते रविके प्रसादकर आदरसे कहिये आतशी ही अनि प्रगट होवे है, अन्य में नहीं; तैसे गुरोंकी कृपाते निरमल कहिये संशय विपर्ययरूप मलसे रहित बोध, शिष्य के हृदय में ही होवैहै, अन्यके नहीं; औ साधनसंपन्नही शिष्य कहा है, यात साधन निष्फल नहीं ॥ १० ॥
ननु ऐसे होवे तो गुरु, विषम दृष्टिवान् होवेंगे ? या शंकाकों चंद्रदृष्टांत से दूर करे हैं:दोहा - जिमिचंदहि लहि चंद्रमनि, अमी द्रवत तत्काल ॥ गुरुमुख निरखत शिष्यके, अनुभव होत विशाल ॥ ११ ॥