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वि० १.
शिष्यआशंका. हिये पंचकोशही मेरा स्वरूप है अथवा नहीं; यह पंचकोश मम कहिये मेरा दृश्य है वा नहीं, इत्यादि विकल्प कहिये संशयोंकी निवृत्तिरूप मौन; ताकू अंगीकार कि: या है । यामै श्रुतिप्रमाण है:-"तिस परब्रह्मके साक्षात्कार होया इस पुरुषकी हृदयग्रंथि औ सर्व संशय तथा सर्वकर्म निवृत्त होवे हैं ॥४॥
(४) "जितना काल पुरुष जीवे उतनकाल गुरु, शास्त्र, ईश्वर, तीनोंकू वंदना करे" यह शास्त्रमैं कहा है। यात् कृतघ्नताकी निवृत्ति अर्थ उरोंकी स्तुति करै हैं:• दोहा-मात तात भ्राता सुहृद,इष्टदेव नृ
प प्रान ॥अनाथ सुगुरुसबतें अधिक,दा नज्ञान विज्ञान ॥५॥ टीका:-अनाथदासजी कहे हैं:-परोक्ष प्रत्यक्ष ज्ञानके देनेवाले जो गुरु सो माता, पिता, भ्राता, सुहृद कहिये प्रतिउपकारकू न चाहकर उपकार करै, इष्टदेव कहिये 'अपने कुलकरके पूज्य देव विशेष, नृप औ अपने