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विचारमाला. वि० २. क्ष्म है जिनोंकी औ आनंदाकार होनेते आनंदरूप हैं। कैसा आनंद है ? सत्वादि तीन गुणोते परे हैं, याही ते निष्प्रेह कहिये अन्यविषयकी इच्छाते रहित हैं। सो महिम्नमें कहा है:-" नहि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति" "अपने आत्मामें आरामी पुरुषकू यह मृगतृ-- ष्णाकी न्याई जो शब्दादिक विषय सो भ्रमावै नहीं औ अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष अभिनिवेशरूप पंच क्लेशतें रहित हैं.! अविद्या द्विधा हैः-एक कारण अविद्या है, अपर कार्य अविद्या है- इहां अविद्या शब्दकर कार्य अविद्याका ग्रहण है, सो चार प्रकारकी है-अनित्यमें नित्यबुद्धि, दुःखमें सुखबुद्धि, अशुचिमें शुचिवुद्धि औ अनात्मामें आत्मबुद्धि, अनित्य जो ब्रह्मादि लोक तिनमें नित्यबुद्धि [१] दुःखका साधन होनेते दुःखरूप जो. ऋपि वाणिज्यादि तिनमें सुखबुद्धि (२) अशुचि जो पुत्र स्त्री आदिकोंके शरीर तिनमै शुचिबुद्धि [३] अ. नात्मा जो अपना शरीर तामैं मुख्य आत्मबुद्धि [४] यह अविद्या है औ अस्मिता नाम सूक्ष्म अहंकार, राग नाम प्रीति, द्वेष नाम विरोध, अभिनिवेश नाम अति