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वि०२. शिष्यआशंका. त्याग अतिसुगम हैं औ अनात्मामैं आत्म अध्यासका त्याग अतिदुष्कर है सो जिनोंने कीया है यात औ यथालाभकर संतुष्ट हैं, अणिमादि सिद्धिरूप ऐश्वर्यकर संपन्न हैं औं विज्ञानके वलकर इस रीतिसें जाने हैं। जैसे अहंकारादिकोंकी प्रतीतिरूप बंध आत्मा मैं मिथ्या है तैसैं तिसकी निवृत्तिरूप मोक्षभी मिथ्या है, काहेरौं श्रुति कहती है:-"न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः॥ न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता ।। १ ।। अस्वार्थ:-"निरोध नाश, उत्पत्ति, देहसंबंध, बद्ध सुख दुःख धर्मवान, साधक श्रवणादि करनेवाला, मुमुक्षु साधनचतुष्टयसंपन्न, मुक्त अविद्यारहित, ये संपूर्ण वास्तव नहीं हैं " ॥७॥ दोहा-तनुमतिगति आनंदमय, गुणातीत निष्प्रेह॥ विगत क्लेश स्वच्छंदमति,सं
तां भूषण एह ॥८॥ : टीका-मतिगतिकहिये बुद्धिवृत्ति तनु कहिये सू