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वि० २.
संतमहिमा. आग्रह, इन पंच क्लेशनते रहित हैं । पुनः अकुंठित बुद्धि हैं, अर्थात् तम रजो करके जिनकी बुद्धि रुकती नहीं । अव प्रकरणको समाप्त करते हुए गुरु कहे हैं: हे शिष्य ! पूर्वोक्त लक्षण संतोंके हैं ॥ ८॥ .
(१६) हे भगवन् ! संतोंके एतावन्मात्रही लक्षण हैं ? या आकांक्षाके भये अन्यभी हैं यह कहे हैं:
दोहा-स्वसंवेद्य नहि कहि सकों, लच्छन संत महंत ॥ परसंवेद्य कहे कळू, संगप्रताप कहंत ॥९॥
टीकाः-हे शिष्य ! महानुभाव जो संत हैं तिनके दो प्रकारके लक्षण हैं:-एक स्वसंवेद्य है, अपर परसंवेद्य हैं। अन्य करके जो जाने जावें सो परसंवेद्य कहिये हैं, आपकर जो जाने जावै सो स्वसंवेद्य कहिये हैं, सो कौन हैं? या आकांक्षाके हुए कहे हैं:-मृत्युके समीप स्थित भया भी चित्तमें भय न होवै औ चिजड ग्रंथिकी निवृत्ति औ निरावरण स्वरूपानंदकी उपलब्धि इत्यादिक