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________________ " 4 विचारमाला. वि . जो स्वसंवेद्य लक्षण हैं सो हम कही नहीं सकते, शेष जो परसंवेद्य लक्षण हैं सो स्वल्पसे हमने कहे हैं। अब सतसंगका माहात्म्य कहै हैं, श्रवण कर ॥ ९ ॥ (१७) अब विनामकी समाप्तिपर्यंत फलकथनद्वारा सत्संगका माहास्य कहे हैं:दोहा-सत्संगति निजकल्पतरु, सकल कामना देत ॥ अमृतरूपी वचन कहि, तिहूं ताप हरिलेत ॥१०॥ टीका:-बांछित फलप्रद होनेः सत्संगही कल्पवृक्ष है, जात सकल पुरुष कीयां इस लोकके धन यशादि पदार्थ विषय करणेवालीयां औ परलोकके स्वर्ग सुखादिकोंकू विषय करणेवालीयां सकल कामना पूर्ण करै है। निष्काम पुरुषके अमृतकी न्याई मधुर वचन कहि करि ज्ञानकी उत्पत्तिद्वारा अध्यात्म अधिभूत अधिदैव तीन ताप दूर करै है । क्षुधा आदिकतें जो दुःख हो सो अध्यात्म कहिये है । चोर व्याघ्र सादिकोतें जो दुःख .
SR No.007743
Book TitleVicharmala Granth Satik Pustak 1 to 8
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnathdas Sadhu, Govinddas Sadhu
PublisherGujarati Chapkhana
Publication Year1832
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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