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विचारमाला. वि . जो स्वसंवेद्य लक्षण हैं सो हम कही नहीं सकते, शेष जो परसंवेद्य लक्षण हैं सो स्वल्पसे हमने कहे हैं। अब सतसंगका माहात्म्य कहै हैं, श्रवण कर ॥ ९ ॥
(१७) अब विनामकी समाप्तिपर्यंत फलकथनद्वारा सत्संगका माहास्य कहे हैं:दोहा-सत्संगति निजकल्पतरु, सकल कामना देत ॥ अमृतरूपी वचन कहि, तिहूं ताप हरिलेत ॥१०॥
टीका:-बांछित फलप्रद होनेः सत्संगही कल्पवृक्ष है, जात सकल पुरुष कीयां इस लोकके धन यशादि पदार्थ विषय करणेवालीयां औ परलोकके स्वर्ग सुखादिकोंकू विषय करणेवालीयां सकल कामना पूर्ण करै है। निष्काम पुरुषके अमृतकी न्याई मधुर वचन कहि करि ज्ञानकी उत्पत्तिद्वारा अध्यात्म अधिभूत अधिदैव तीन ताप दूर करै है । क्षुधा आदिकतें जो दुःख हो सो अध्यात्म कहिये है । चोर व्याघ्र सादिकोतें जो दुःख .