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विचारमाला. वि. १.. टीका:-आशा कहिये वांछित विषयकी निरंतर इच्छा, तृष्णा कहिये विषयकी प्राप्तिसैं अतृप्त वृत्ति, चिं. ता बहु कहिये अप्राप्त विषयके साधनका चिंतनरूप औ प्राप्त विषयकी रक्षाका चिंतनरूप वृत्ति, यह त्रितय वृत्तिरूप जो डायन, अंतःकरणमें एक कालमै एकही वृत्तिकी न्याई उदय होवे है या त्रितयवृत्तिरूप एक डायन कही, याके विद्यमान होयां मम जीवन कहिये मेरी ब्रह्मरूपकार स्थिति, किसप्रकार होवै ! अर्थात् किसी रीति नहीं होवै, काहे स्थितिका साधन जो निरंतर तत्त्वानुसंधानरूप स्मृति ताकू खाय कहिये ताकी वि. रोधी है ॥ १४॥ दोहा-कबहूं सुमति प्रकाश चित, कबहूं. कुमति अधीन ॥ बिबनारीके कंतज्यों .. रहत सदा अति दीन ॥१५॥
टीकाः-दृष्टांतः-जैसे परस्पर विरोधिनी उभय स्त्रियोंकर जीत्या पुरुष निरंतर दुःखी रहता है, तैसें मैंबी चित्त कहिये अंतःकरणमें कंदाचित् शुभनिश्चयरूप .