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वि० १०
शिष्यआशंका.
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वृत्ति औ कदाचित अशुभनिश्चयरूप वृत्ति तिनमें तादात्म्य अभ्यासकर दुःखी रहता हूं ॥ १५ ॥
(७) अब शिष्य, स्वनिष्ठ आसुरी गुणों कंं नदीरूपकर वरनन करता हुआ दुःखके हेतुकं कहे है :दोहा - नदि आसा शुभ अशुभ तट, मरी मनोरथ नीर ॥ तृष्णा अमित तरंग जिहिं, भरम भमर गंभीर ॥ १६ ॥ टीका:- पूर्वोक्त आशारूप - नदी है, जिसमें डूब· ता है औ अविचारपूर्वक शुभाशुभक्रिया जाके किनारे हैं, भूत औ भावी पदार्थोंकूं विषय करनेवाले मनोराज्यरूप जलकर पूर्ण है, पूर्वोक्त तृष्णारूप अमित जिसमें लहरी हैं औ आत्मतत्त्वके अभाववाले अहंकारादिकों में आत्मतत्त्व की प्रतीतिरूप भ्रम, सोई जामै भमर कहिये ! आवर्त हैं ॥ १६ ॥ दोहा - रागादिक जलजंतु बहु, चिंता प्र बल प्रवाह ॥ धृति तरु हरनी तरन तिहि; बेधत मो मन आह ॥ १७ ॥
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