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विचारमाला. . . वि० १. टीकाः-जामें राग कहिये प्रीति औ द्वेषरूप म... स्यकूर्मादि जलजीव हैं औ पूर्वउक्त चिंतारूप अति वें... गवाली धारा है औ एकांत स्थानमैं विषयकी प्राप्तिसँ . चित्तकी अविकारिकारूप धीरज सोई भया तरु तिसके हरनेमैं तरुण कहिये समर्थ है, ता नदीने मेरे मनको वेधित कहिये पीडित किया है ।। १७ ।। . पुनः वही कहै हैं:दोहा-प्रबल युगल शुभ अशुभ गज, मिरत सुरोस बढ़ाय॥ अपनी भूल अनाथ हौं, पो मध्य तिहिं आय ॥१८॥
टीकाः दृष्टांतः-जैसे अतिबलवाले दो हस्ती क्रोधपूर्वक परस्पर युद्ध करते होवें तिनमैं प्रवेश कर पुरुष दुःखकुं अनुभव करै, तैसे अपनी भूल कहिये अपने ब्रह्मात्मभावको न जानकर शुभ अशुभ संकल्पोंमें तादात्म्य. अध्यास करिके हौं अनाथ कहिये मैं दीन भया हो।॥१८॥
(८) अब स्वमनगत चंचलताकू दुःखका हेतु शिष्य दिखावै है:-. ... ... .. .