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वि० १.
शिष्य आशंका.
दोहा - कबहुँ न मन थिरता गही, समझायो से पोत ॥ जैसे मरकट वृच्छपर, कवी न ठाढो होत ॥ १९ ॥
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टीका:- दृष्टांतः - जैसे बाजीगरकर शिक्षित भयाभी बंदर वृक्षपर आरूढ होकर निष्कंप रहे नहीं; तैसे पुनः पुनः चित्तकी एकाग्रताका यत्नभी किया तथापि मेरा मन एकाग्रताको न भजता भया ।। १९ ।। • दोहा - चलदलपत्र पताकपट, दामिनि - कच्छपमाथ ॥ भूतदीप दीपक शिखा, यों मनवृत्ति अनाथ ॥ २० ॥
टीका:- चलदल नाम पिप्पल वृक्षका है । यह षट् पदार्थ जैसे स्वभावसे चंचल हैं तैसे मेरे चित्तकी वृत्ति स्वभावसे चंचल है । अन्य स्पष्ट ॥ २० ॥
स्वभावसे चित्तकी विषयों में प्रवृत्तिभी दुःखकी हेतु है, या अर्थको शिष्य दिखावै है :