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वि० १. शिष्यआशंका... १३
• (६) अब हृदयगत दुःखके हेतुकू दिखावता हुआ, शिष्य कहे है:
दोहा-हौं अनाथ अतिसे दुःखी, डो 'देखि संसार॥ बूड़तहौं भवसिंधुमें, मोहि करो प्रभु पार ॥ १३॥ टीकाः हे प्रभो ! मैं अनाथ कहिये मेरा कोई रक्षक नहीं, औ अतिशयकर दुःखी हूं। काहेते, विषयसुखा मैंने त्याग्या है औ स्वरूपसुखको प्राप्त भया नहीं औ जन्ममरणरूप संसारजन्य दुःखका स्मरण कर भयभीत भया हों, ऐसे संसाररूप समुद्रमें डूबता जो मैं हों ता मुजकों पार कहिये संसारका पार जो परमेश्वर तहां प्राप्त करो ॥ १३॥
पुनः हेतु अंतरको दिखावै हैं:दोहा-आसा तृष्णा चिंत बहु, ए डायन घरमांहि ॥ जीवन किहि विध होय मम, हृदे स्मृतीकू खांहि ॥ १४ ॥