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________________ ज्ञानसाधन. वि० ४. (४७) पूर्व तृतीये दोहेके प्रथम पादमें "जगतमें आसक्तिका त्याग कर” यह कहा तामें हेतु कहे हैं:दोहा-जगत् खेदमें परे जिन, केवल दुखतामाहि ॥ सत्य सत्य पुनसत कहूं, सुख स्वप्नेह नाहि ॥१५॥ टीका:-हे शिष्य ! पूर्व उक्त जगत्का परित्याग कर, तामें आसक्ति मत कर, काहेते तामें केवल क्लेशही है।इस अर्थकू प्रतिज्ञाकर कहे हैं,सत्य इत्यादिपदोंकर१५ । (४८) अब श्रोताकी बुद्धिमें अर्थके आरूढ होने अर्थ, जगत्को समुद्रके रूपालंकारसे कहे हैं:दोहा-जग समुद्र आसक्ति जल, कामादिक जलजंत ॥ भँवर भरम तामें फिरें, दुख सुख लहर अनंत ॥ १६ ॥ चिंता वड़वा अग्नि जहँ, तृष्णा प्रबल समीर॥ जिहिं जहाज या पयो,तिहिं किम धीर समीर ॥ १७॥
SR No.007743
Book TitleVicharmala Granth Satik Pustak 1 to 8
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnathdas Sadhu, Govinddas Sadhu
PublisherGujarati Chapkhana
Publication Year1832
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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