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________________ ७२ विचारमाला. वि० ४. दूर होजावै तो प्राणवियोगके समान दुःख होवे है; जाते धन, पुरुषका बाह्य प्राण है । सोई पंचदशीमें कहा है:"अर्थोके एकत्र करनेमें क्लेश है, तैसे रक्षा करने में औ नाशमें औ खरचनेमें क्लेश है, ऐसे क्लेश करनेवाले धनौकू धिक्कार है। ॥ १३ ॥ (४६) पूर्व एकादश दोहोकर कहे अर्थकू दृष्टांत हित एक दोहेकर कहे हैं:दोहा-ताते इनको संग तूं, छाड कुशल जिय मान॥मानो विषते सर्पते, ठगते । छुट्यो निदान ॥१४॥ टीका:-जाते सुत, दारा, गृह, धन, उक्त रीतिसे दुःखदाई हैं, तात तूं इनके संबंधळू त्याग करि आफ्ना कल्याण निश्चय कर । यद्यपि कल्याण नाम सुखका है सो इष्टकी प्राप्तिसे होवै है; तथापि अनिष्टको निवृत्तितेभी होवे है । यामें दृष्टांत कहै हैं। जैसे कोई बालक विष सर्प उगके वश हुआ किसी पुण्यवशतें छूटके आपको सुखी माने तदत ॥ १४॥ .
SR No.007743
Book TitleVicharmala Granth Satik Pustak 1 to 8
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnathdas Sadhu, Govinddas Sadhu
PublisherGujarati Chapkhana
Publication Year1832
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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