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ज्ञानसाधन.
वि०'४.
टीका:-सुत, दारा, गृह इन तीनोंकी न्याई दुःखदाई जो धन ताकू जो संपत्ति माने है, सो पुरुष क्रूर कहिये झूठा है; काहेते जा धनके संपादन कर आपने आत्माका ब्रह्मरूपतासे जो ज्ञानरूप धन सो विस्मरण भया है । सो ज्ञान कैसा है ? सब सुख कहिये ब्रह्मसुख ताकी संपत्ति कहिये प्राप्तिका हेतु है ॥ १२॥
धन दुःखका हेतु किस प्रकारसे है ? ऐसे कहो तहां सुनोःदोहा-बहु उद्यम प्राणीकर,अति क्लेशता हेतु ॥ जुरे तु रच्छी निपट दुख, जाइ तु प्राणसमेत ॥१३॥
टीका:-धनकी प्राप्ति अर्थजो पुरुष कृषिवाणिज्यादि बहुत उपाय करे हैं, तिनकर तिनकू अति क्लेश होवै है याते संग्रहकालमें दुःखदाई है । औ किसी पुण्यवशते इकत्र हो जावै तो नृप चौर अग्न्यादिकोते रक्षा करने में अति क्लेश होवै है औ नृप चोर अग्न्यादि निमित्तते