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विचारमाला.
वि०.४. ..
(.४४ ) इस रीतिसे पुत्रमें दूषण दिखाइके गृहमें दूषण दिखावे हैं:सोरठा-अंधकूपसम गेह, पच्यो नजान्यो मरम शठ॥ बँध्यो पशुवत नेह, सुत त्रिय क्रीडामृग भयो॥ ११॥
टीकाः-जलसे रहित बनके कूपकी न्याई दुःख•दाई जो गृह, ताके भरणमें प्रयत्नवान हुआ औ गृहमें । . जो सुतदारादि तिनमें स्नेहरूप रज्जुकर बंधायमान हुआ, तिनकी क्रीडाका मानो मृग भया है ! औ जैसे कोई पुरुष अपने आल्हादके अर्थ गृहमें प्रीति करे हैं तैसे ये सुत दारा आदि अपने सुख अर्थ मेरेमें प्रीति. करे हैं या मर्मकू नहीं जाने है; याते शठ है ॥ ११ ।।
(४५) अब द्रव्यमें दूषण दिखावै हैं:दोहा-द्रव्य दुखद तिहुं भांति यह,संपति मानत. क्रूर॥ बिसयो आत्मज्ञान धन, सब सुख संपति-मूर ॥ १२॥ ..