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वि० ४. ज्ञानसाधन. ॥ दोहा ॥ "कर विचार यों देखिये, पुत्रसदा दुख रूप ॥ सुख चाहत जे प्रतते, ते मूढनके भूप” ॥९॥
पुत्रमें आसक्त पुरुषको मूढ कहा तामें हेतु कह्या चाहिये ? ऐसे कहो, तहां सुनोःदोहा-काज अकाज लयोनही, गह्यो मोह दृढ बंधा॥ सुगुरु खोज मग नाचह्यो, वह्यो सिंधु मति अंध ॥१०॥ टीका:-जाते पुत्रमें आसक्तिरूप दृढ बंधन करवंधायमान होके जा पुरुषने सुष्ठु गुरुका अन्वेषण (खोज) करके, मेरे ताई मनुष्य शरीर पाइकै क्या कर्तव्य है ऐसे नहीं जान्या औ मोक्षके मार्ग तत्त्वज्ञानकू संपादन नहीं किया औ विवेकसे रहित होकर जन्ममरणरूप संसारसमुद्रमें निमम हुआ है, ताते सो पुरुष मूढ है । सोई कहा है:-"निद्रा भोजन भोग भय, ए पशु पुरुष समान ॥ नरन ज्ञान निज अधिकता, ज्ञान विना पशुजान " ॥१०॥