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________________ विचारमाला.. ७४ वि०४. टीका:-जिस पुरुषका चित्तरूपी जहाज या जगतुरूप समुद्रमें पड़ा है ताके अंतःकरणमें धैर्यादि दैवीसंपदके गुण कैसे उदय होवै । अन्य स्पष्ट ॥ १७॥ (४९) पूर्वोक्त जगतमें आसक्ति किस हेतुते होव है ? या आकांक्षाके होयां, शरीरमें आत्म अभिमानते होवे है, यह वार्ता सदृष्टांत दो दोहों कर कहे हैं: दोहा-अपनो चित दुसरा भयो, पर अवगुण दर संत ॥ दृष्टिदोषते प्रकट ज्यों, बिव शशि गगन लहंत ॥१८॥ टीका:-जैसे अपने चित्तमें दुराशतारूप दोषकर अन्य पुरुषनिष्ठ दूषण प्रतीत होवै हैं औ नेत्रोंमें तिमिरादि दोषकर आकाशमें दो चंद्र प्रसिद्ध प्रतीत . होवे हैं ॥१८॥ . इस रीतिसे दृष्टांतकर कहे अर्थकू दार्टीतमें जोड़े हैं:दोहा-तातेंतन अभिमान ताजि, अजर.
SR No.007743
Book TitleVicharmala Granth Satik Pustak 1 to 8
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnathdas Sadhu, Govinddas Sadhu
PublisherGujarati Chapkhana
Publication Year1832
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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