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विचारमाला..
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वि०४. टीका:-जिस पुरुषका चित्तरूपी जहाज या जगतुरूप समुद्रमें पड़ा है ताके अंतःकरणमें धैर्यादि दैवीसंपदके गुण कैसे उदय होवै । अन्य स्पष्ट ॥ १७॥
(४९) पूर्वोक्त जगतमें आसक्ति किस हेतुते होव है ? या आकांक्षाके होयां, शरीरमें आत्म अभिमानते होवे है, यह वार्ता सदृष्टांत दो दोहों कर कहे हैं:
दोहा-अपनो चित दुसरा भयो, पर अवगुण दर संत ॥ दृष्टिदोषते प्रकट ज्यों, बिव शशि गगन लहंत ॥१८॥
टीका:-जैसे अपने चित्तमें दुराशतारूप दोषकर अन्य पुरुषनिष्ठ दूषण प्रतीत होवै हैं औ नेत्रोंमें तिमिरादि दोषकर आकाशमें दो चंद्र प्रसिद्ध प्रतीत . होवे हैं ॥१८॥ . इस रीतिसे दृष्टांतकर कहे अर्थकू दार्टीतमें जोड़े हैं:दोहा-तातेंतन अभिमान ताजि, अजर.