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वि० १. शिष्यआशंका. होवै तोभी किसीका निवर्त हुआ है वा नहीं हुआ ? निवर्तभी पुनः प्रतीत होवै है वा नहीं ? इत्यादि संशयरूप हेतुः हेयउपादेयरूपकर निश्चित होवै नहीं;यातेभी क्लेशही है। दृष्टांतः-जैसे चचुंदर कहिये दुर्गंधविशिष्ट मूषक सदृश जीवविशेष, ताकू सर्प, मुखमें ग्रहण करके पुनः ग्रहण त्याग, अशक्त हुआ दुःखी होते है तैसे।।२२।।
(१०) पूर्व शिष्यने करे जो प्रश्न, तिनका क्रमसे गुरु समाधान करै हैं:-श्रीगुरुरुवाच. दोहा-समाधान गुरु करत हैं, दयायुक्त कहि बोल ॥ मम वचननमें आनतूं, आपत वाक्य अडोल ॥२३॥ टीका:-ग्रंथकार उक्तिः-गुरु, शिष्यके प्रश्नोंका उत्तर कहै हैं, क्या करके, दयादृष्टिपूर्वक वचन कह करके, गुरुउक्तिः हे शिष्य ! मेरे वचनोंमें तूं विश्वास कर, काहेते गीतामें भगवानने कहा हैः- श्रद्धावान 'लभते ज्ञानम् " कैसे वाक्य हैं ? आपत वाक्य कहिये