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विचारमाला. वि०१. वेदवाक्य हैं, काहेते " ब्रह्मविद्रह्मैव भवति " ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मरूप है याते ताकी वाणी वेदरूप है औ किसी प्रतिवादीकर खंडन नहीं हो सकते, याते अडोल हैं।।२३।।
(११) पूर्व, शिष्यने कह्या जो मेरा मन चंचल है या शिष्यकी उक्तिका अनुमोदन करते हुए गुरुः चंचलताकी निवृत्तिका उपाय कहै हैं:दोहा-निःसंशय मन है चपल, दुष्कर गतिअतिआहि।गुरु श्रुतिशुद्ध अभ्यास कर, निश्चल कीजत ताहि ॥ २४॥ टीकाः हे शिष्य ! तैने जो कहा मन चंचल है औ अतिशय दुःखके करनेवाली है गति कहिये प्रवृत्ति जि. सकी, यामें संदेह नही; तथापि गुरुमुखात श्रुतिशुद्ध कहिये श्रुतिप्रतिपाद्य जीव ब्रह्मका अभेदरूप अर्थ, तिसका श्रवण करकै पुनः पुनः चिंतनरूप अभ्यास कर, तिसी अर्थमें तिस चित्तकी स्थिति कर सो मन निश्चल करिये है । इत्यर्थः ॥ २४ ॥