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वि० ८. आत्मवान् स्थितिवर्णन. १४७ .. दोहा-कृपा करत शिषपर घनी, गुरु श
रणाईराइ ॥ इस्थिति आतमवानकी, कहि पुनिपुनि दरसाइ॥८॥
टीकाः-जाते गुरु शरणागतपालकोंमें मुख्य हैं, ताते शिष्यपरभी बहुतसी कृपा करते हुए ज्ञानवानकी उदासीनतारूप स्थितिको दृष्टांतोंसे वारंवार कहे हैं।।८॥ __अब अधिष्ठानते भिन्न जगतमें सत्य बुद्धिके अभावतेभी विद्वानकी प्रवृत्ति संभव नहीं, यह कहे हैं:- : दोहा-जैसे भूजे अन्नमें, उद्भवता भई
छीन ॥ तैसे आतमवानकी, भई जगत ‘मति लीन॥९॥ . टीका:-जैसे केवल वहिकर पक्क अन्नमें अंकुर उत्पन्न करनेका सामर्थ्य रहे नहीं, तैसे अधिष्ठानके ज्ञानकर ज्ञानवानकी जगतमें सत्यत्व बुद्धिके अभावते प्रवृत्ति संभव नहीं ॥ ९॥ .. ननु ज्ञानवानोंकी निष्ठा भिन्न होनेते काहूकी प्र