________________
वि०. ८.
आत्मवान् स्थितिवर्णन.
१४३
यो ज्ञान उद्योत ॥ विषय संग मति भंग : व्है, ज्ञान शिथिलता होत ॥ ३ ॥
टीका:- हे शिष्य ! जेकर तूं ऐसे कहे, एकवार महावाक्यके श्रवण ज्ञानके उदय भये पुनः विषयों में प्रवृत्तिसे मेरी क्या हानि है, यह तेरा कथन संभवे नहीं: काहेते विषयोंके संबंधसे तत्त्वविचारवती बुद्धि नष्ट है औ विचार के अभावते ज्ञातवस्तुमें संदेहरूप शि थिलता ज्ञानमें होवे है ॥ ३ ॥
अब योग्यता के अभावते विद्वानकी प्रवृत्तिका अभाव दिखावे हैं:
दोहा - जान्यो अविनाशी अजर, अद्यय रूप अपार ॥ जग आसक्ति न संभव, सुन शिष्य सत्य विचार ॥ ४ ॥
टीका:-- हे शिष्य ! महावाक्यके श्रवण कर नित्य नवीन औ नाशते रहित प्रत्यकू आत्माकं जब परिच्छेदते रहित अद्वय आनंदरूप जान्या, तब भोगरूप ज