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१४४ , विचारमाला.. वि०८ गतमें आसक्ति संभव नहीं । जैसे चक्रवर्ती राजाको ग्रामाध्यक्षके भोगकी इच्छा बनै नहीं तैसे । जो कहे चित्त निरालंब रहे नहीं, तो सत्य वस्तुके चिंतनरूप विचारको निरंतर कर ॥ ४॥ · . · अब व्यतिरेकमुखसे ज्ञानवान्की प्रवृत्तिका अभाव
दोहा-शुद्ध स्वरूप लयो नहीं, उद्यो न निर्मल ज्ञान ॥ मलिन विषय व्यवहार रति, तबलग होत अजान ॥५॥ टीका:-तबलगही अज्ञ पुरुषकी अविद्याके कार्य शब्दादि विषयोंमें औ कायिक वाचिक मानसिक क्रियामें प्रीति होवै है, जबलग संशय विपर्ययसे रहित तत्त्वज्ञानकर अपने आत्माको ब्रह्मरूप नहीं जाने है। जैसे खल खानेमें पुरुषकी रुचि तबलग होवे है, जबलग यथारुचि पायसादि उत्तम भोजनोंकी प्राप्ति नहीं होवै है" “ पुनः विधिमुखकर प्रवृत्तिका अभाव कहे हैं:-..