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वि०४० आत्मवान् स्थितिवर्णन. १४५ दोहा-जो पूरण आतम लह्यो, तौ क्यों रति व्यवहार॥ सोऽहं जान महोत क्यों, जग जन दीन प्रकार ॥६॥
टीका:-हे शिष्य ! जो तू ऐसे कहे, मैं आत्मा५ पूर्ण ब्रह्मरूप जान्या है, मुझपर विधि निषेध कहां है; तो प्रवृत्तिरूप व्यवहारमेंभी प्रीति बन नहीं, काहेते. जाके आनंदके लेशते सारा विश्व आनंदित है सो आनंदस्वरूप ब्रह्म मैं हूं ऐसे जिसने जान्या है सो महात्मा संसारी जीवोंकी न्याई दीन क्यों होवै है, अर्थात् नहीं होवै है ॥६॥
ऐसे ज्ञानके साधनोंपर ग्रंथोंका तात्पर्य कहकर, अब शिष्यके प्रति विषयोंते उपराम करे हैं:दोहा-मुक्ति विषय वैरागजो, बंधन विषय स्नेह ॥ यह सब ग्रंथनको मतो, मन मानै सु करेह ॥७॥ . टीका:-हे शिष्य ! विषयोंमें जो वैराग्य है सो
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