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वि० ५.
जगदात्मवर्णन.
१०३.
कहा जगत् असत् होवै तो प्रतीत न हुआ चाहिये याका उत्तर कहे हैं:
दोहा - जग तो तू जगतमें, याँ लहि तज हंकार | मैं मेरो संकल्प तजि, सुखमय अवनि विहार ॥ ४ ॥
टीका :- यह जगत् संपूर्ण तेरे स्वरूपमें कल्पित है । जाते कल्पितकी प्रतीति अधिष्ठान बिना होवे नहीं. ताते जगत् में अधिष्ठानरूपतें तूही स्थित है ऐसे जान• कर, मैं कर्ता भोक्ता हूं अरु यह वस्तु मेरी है और मैं संकल्पका कर्ता हूं या परिच्छिन्न अहंकारकूं त्यागकर शांतचित्त हुआ प्रारब्धके अनुसार पृथ्वीपर चेष्टा कर ॥४॥
औ जो कहो मिथ्या जगतकी प्रतीति कर तत्त्वज्ञानकी हानि होंवेगी ? तहां सुनो:
दोहा - अज्ञान नींद स्वप्नो जगत, भयो सुखद कहें त्रिस्य ॥ ज्ञान भयो जाग्यो जबे, दृष्टा दृष्टि न दृश्य ॥ ५ ॥