________________
१०२
विचारमाला.
वि० ५.
भ्रम भूल करभी नहीं करना, काहेते जगत स्वरूपते हैही नहीं तो तामें सत्ताका ज्ञान कैसा होवे । जाते कार्यरूप जगतका अभाव है, तामें ताका कर्ता ईश्वर कहां है । ईश्वर जीव दोनों कल्पित हैं, यह पंचदशी में कहा है: - 'माया आभास करके जीव ईश्वर दोनोंको करे है, या श्रुतिके श्रवणते, तिन दोनोंने सर्व प्रपंच कल्प्या है, कल्पित वस्तु अधिष्ठानमें अत्यंत असत होवे है, याते जगत औ ईश्वरका अभाव कहा है, इनमें प्रतीति मन, कृत है ॥ २ ॥ दोहा - राग द्वेष मनके धरम, तूं तो मन नहि होइ ॥ निर्विकल्प व्यापक अमल, सुखस्वरूप तू सोइ ॥ ३ ॥
टीका: - जैसे जगतमें सत्ता प्रतीति मनका धर्म है, तैसे तामें राग द्वेषभी मनके धर्म हैं, सो मन तू नहीं । जो कहै मनसे भिन्न मेरा क्या स्वरूप है ? तहां सुन ! निर्विकल्प कहिये तर्क से रहित व्यापक, मलरहित, सुखस्वरूप जो चेतनब्रह्म, सो तू है ॥ ३ ॥ पूर्व शिष्यने
1