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________________ वि० ८०. आत्मवान् स्थितिवर्णन. १५५ न्यायादि सर्व मतोका पर्यवसान अद्वैत निश्चयरूप ज्ञानसे इस रीति से विद्वानने निश्चय कीया है:- पूर्व मीमांसा यज्ञादि कर्मोंके उपदेशते अंतःकरणकी शुद्धिद्वारा ज्ञानका हेतु है औ सांख्यशास्त्र त्वंपदार्थके शोधनद्वारा ज्ञानमें उपयोगी है औ न्याय वैशेषिक बुद्धिकी सूक्ष्मता से मननद्वारा ज्ञानमें उपयोगी हैं औ चित्तकी एकाग्रता - द्वारा पातंजल शास्त्र ज्ञानका हेतु है औ उत्तर मीमांसा तत्त्वज्ञानकी उत्पत्ति में साक्षात हेतु है इस रीति से साक्षात वा परंपरासे सर्व मतोंका पर्यवसान तत्त्वज्ञान में विद्यानने सारग्राही दृष्टिसे निश्चय किया है; याते ताकी ज्ञानसे उत्तर कर्तव्यबुद्धिकर किसी शास्त्रमें प्रवृत्ति सं भवै नहीं ॥ १८ ॥ ( ८६ ) अब प्रसंगको समाप्त करते हुए ग्रंथकार कहे हैं: दोहा - हेतु परीक्षाके सुगुरु, खंड्यो जगव्यवहार ॥ कहत शिष्य आनंद युत, वश प्रारब्ध आधार ॥ १८ ॥
SR No.007743
Book TitleVicharmala Granth Satik Pustak 1 to 8
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnathdas Sadhu, Govinddas Sadhu
PublisherGujarati Chapkhana
Publication Year1832
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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