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विचारमाला. वि०८ टीका:-ग्रंथकार उक्तिः-सुष्ठु गुरुने शिष्यके निःसंदेह तत्त्वज्ञानकी परीक्षा अर्थ, विद्वानके भिक्षा आच्छादन ग्रहणते अधिक व्यवहारका निषेध किया तब प्रसन्न मनवाला हुआ शिष्य, वक्ष्यमाण वचनोंसे कहे है:प्रारब्धाधीन विद्वानके शरीरकी स्थिति औ भोग्य होवै है, याका यह अभिप्राय है-विद्वान्पर वेदकी आज्ञा तो है नहीं, जाते विद्वान्के व्यवहारका नियम होवैः किंतु प्रारब्धकर्मके अनुसार विद्वान्का व्यवहार होवै है ॥ सो प्रारब्ध अनेकविध है:-किसी विद्वान्का । अधिक प्रवृत्तिका हेतु प्रारब्ध है, यथा जनक आदि। कोंका, किसी विद्वान्का निवृत्तिका हेतु प्रारब्ध है, यथा वामदेव आदिकोंका, इस रीतिसे विद्वान्के व्यवहामें नियम नहीं ॥ १८॥
(८७) आसक्तिपूर्वक क्रिया बंधनका हेतु होवै है सो ज्ञानीके है नहीं याते ज्ञानवान्की प्रवृत्ति स्वाभाविक होनेते बंधनका हेतु नहीं, या अर्थको शिष्य
शिष्य उवाच ।