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विचारमाला.
वि० ४.
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वाक्यमें स्थित जो गंगा औ ग्रामपद तिनके अर्थ जो नगर औ नंदीका प्रवाह, तिनका परस्पर संबंध बने नहीं याते लक्षणा मानी है । या नैयायिक उक्तिका 'यष्टी: प्रवेशय ' या वाक्यमें व्यभिचार है : काहेते भोजनके समय उत्तम पुरुषने अन्य पुरुषको कहा 'यष्टिका प्रवेश करावो' इहां यष्टिपदका अर्थ जो दंड ताका प्रवेश पदार्थसे संबंध संभवैभी है, तथापि वक्ता के तात्पर्यके अभावते लक्षणा होवै है । याते तात्पर्य अनुपपत्तिही लक्षणा में बीज है औ लक्षणाके ज्ञानमें शक्यका ज्ञान उपयोगी है, काहेते शक्यसंबंध लक्षणाका स्वरूप है, शक्य जाने बिना शक्यसंबंधरूप लक्षणका ज्ञान होवै नहीं, याते शक्यका लक्षण कहे हैं: - जा पदमें जा अर्थकी शक्ति होवै ता पदका सो अर्थ शक्य जान । अब लक्षणाका स्वरूप कहे हैं:शक्यका जो लक्ष्यार्थसे संबंध, सो लक्षणांका सामान्य लक्षण है । अब लक्षणाके जहती आदि भेद औ तिनके लक्षण कहे हैं: - वाच्यार्थका परित्याग करके .