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वि०.४. ज्ञानसाधन.
७. धर्मवान्, परोक्षताविशिष्ट, सत्य ज्ञान अनंतस्वरूप जो ईश्वर, चेतन, सो ततपदका वाच्य है । अब त्वंपदका वाच्य कहे हैं जो अंतःकरणविशिष्ट, अहंशद औ अहंवृत्तिकी विषयतासे प्रतीत होवै है, सो जीव चेतन त्वंपदका वाच्य है औ असिपद दोनोंकी एकताका बोधक है । अब वाक्यार्थ कहे हैं। जो सर्वज्ञतादि गुणवान् प. रोक्ष ईश्वर चेतन सो अंतःकरणविशिष्ट अल्पज्ञताआदि धर्मवान नित्य अपरोक्ष तु है यह कहना विरुद्ध है बने । नहीं. काहेते विरुद्ध अर्थमें वक्ताका तात्पर्य होवे नहीं, याते सार असार हताक कहिये ईश्वर जो जीव ईश्वरका स्वरूप तामें सार जो चेतनभाग ताकू एक जान । महावाक्योंमें लक्षणा अंगीकार करी है, याते लक्षणाका हेतु स्वरूप कहे हैं:-वक्ताके तात्पर्यकी अनुपपत्ति लक्षणाका बीज है । नैयायिक अन्वयकी अनुपपत्ति लक्षणाका बीज कहे हैं,सो बने नहीं: काहेते यह तिनका अभिप्राय है.
जहां वाक्यमें स्थित पदोंके अर्थोंका परस्पर संबंध . न बने तहां लक्षणा होवै है जैसे गंगायां ग्रामः' या