________________
वि० ७०
शिष्य अनुभववर्णन.
१.३.५
नमेष नसाय ॥ कहो जंगत कित संभवै, मनही जहां विलाय ॥ १२ ॥
▾
टीका :- मनके फुरनेसे जगत् प्रतीत होवे है औ मनके शांत भये जगत् प्रतीत होवै नहीं. जो कहो यह कैसे निश्चय होवे ? तहां सुनो:- जाग्रत स्वप्नमें मनके सद्भावतें स्थूल सूक्ष्म जगत प्रतीत होवे है औ सुषुप्ति में मनके विलयते जगत प्रतीत होवे नहीं. या अन्वयव्यतिरेक युक्तिसे जगत प्रतीतिमें मनकी कार
}
णता निश्चय हों है। जहां ब्रह्मरूप ज्ञात अधिष्ठान में मनकाही अभाव निश्चय होवे है, तहां जगतकी प्रती - ति कैसे संभवे ॥ २२ ॥
(७९) पूर्व कहे अर्थको पुनः प्रगट करे है:दोहा - नहिं कारण नहिं कार्य कछु, नहिं न काल नहिं देश || शिव स्वरूप पूरण अचल, सजाति विजाति न लेश ॥१३॥ टीका:- कल्याणस्वरूप, विभु क्रियासे रहित मेरे