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विचारमाला.
वि. १. : हत निजश्रेय ॥ जग बंधन इच्छित मुच्यो, तौ सतसंग करेय ॥२६॥
टीकाः-हे शिष्य! जो पुरुष निजश्रेय कहिये स्वस्वरूप सुखके जानबेकी इच्छा करते हैं औ अविद्या त तकार्य जगतरूप बंधकी मुच्यो इच्छित कहिये निवृ. तिकी इच्छा करै हैं, सो उत्तम सीख कहिये महावाक्यका उपदेश, ताको सुन कहिये श्रवण करके कृतार्थ होवै हैं; औ तू आपको यामें असमर्थ देखता है तो सतसंग करेय कहिये सज्जनोंका संग कर ॥ २६ ॥ . . दोहा-गहै चचुंदर अहि मरे, तजै दृगनकी हान॥जल पाये सुख होत है,नर सतसंग प्रमान ॥२७॥
(१४) ग्रंथकार उक्तिः सोल-श्रीगुरु दीनदयाल, असरन सरन उदार अति ॥ जन अनाथ उरसाल,क.. पा करत चाहत हो ॥२८॥