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वि० २. शिष्यआशंका.
टीका:-अनाथदासजी कहै हैं:-जन कहिये शिष्यके हृदयमें शाल कहिये दुःख ताकू गुरु कृपाकर निवृत्त किया चाहते हैं,काहेते दीन पुरुषों में दयालु हैं औ अशरण कहिये सर्व ओर निरास जो जिज्ञासु तिनकी शरण कहिये आसरा हैं औ आत्मरूप धनके दाता हैं, याः अति उदार हैं ॥ २८॥ दोहा-प्रथम शिष्यसंदेह कहि, भयो सु आप अदृष्ट॥सुख दुखकर साक्षात जिम, होहिं सुदृष्ट अदृष्ट ॥१॥ इति श्रीविचारमालायां शिष्यआशंकावर्णन नाम प्रथमो
विश्रामः समाप्तः ।। १ ।।
अथ संतमहिमावर्णनं नाम द्वितीयविश्रामप्रारंभः ॥२॥ सतसंगकी इच्छावाला हुआ शिष्य संतोंके लक्षणकू पूछे है:-शिष्य उवाच.
दोहा-कहो कृपाकरिसाधुके,लच्छन श्री