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वि०३.
ज्ञानभूमिका. रचित पुत्र मरगया है ताका दुःख होवै नहीं, मनोमय जीवै है ताका सुख होवै है । यात जीवसृष्टि ही सु. खदुःखकी हेतु है । ननु ईश्वर सृष्टिते जीवसृष्टि भिन्न होवै तो प्रतीत हुई चाहिये औ प्रतीत होवै नहीं, यातें भिन्न नहीं ? सो शंका वनै नहीं:-काहेत? जैसे एकहीं ईश्वररचित स्त्रीशरीरमें पतिकू भार्या औ भ्राताको भगिनी तथा पुत्रको माता प्रतीत होवै है, इत्यादि दश
पुरुषोंकू भार्या भगिनी आदि शरीर प्रतीत होवे हैं। , तथा दशोंकोही पृथक् पृथक् सुख दुःखका साक्षात्का
ररूप भोग हाव है। यात माता भगिन्यादि रूप जीवसृष्टि अवश्य मानी चाहिये, सोई सुखदुः-खका हेतु है इस रीतिसं विचारना । यह दूसरी सुविचारणा नाम भूमिका है ॥ ११ ॥ (३३) अब तृतीय तनुमानसा भूमिकाका स्वरूप
दोहा-तनुमानसा सु तीसरी, मनको प्र