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५६ विचारमाला... - वि० ३. अंतर चतुर्दश भुवन, तिनमें रहणेवाले देवदैत्य मनुः , प्यादि शरीर, तथा तिनके यथायोग्य भोग्य होवे हैं। इत्यादि जो ईश्वरसृष्टि सो सुख दुःखकी हेतु. नहीं, अपर जो जीवसृष्टि सो सुख दुःखकी हेतु है । याम दृष्टांत. ग्रंथांतरमैं इस रीतिसै लिख्या है। जैसे दो पुरुषनके दो पुत्र विदेशमें गए होवे, तिनमैं एकका पुत्र मरजावै, एकका जीवता होवै, सो जीता पुत्र बड़ी विभूतीकू प्राप्त होयकै किसी पुरुषद्वारा अपने पिताकं. अपनी विभूति प्राप्ति की औ द्वितीयके मरणका समा. चार भैजैतहांसमाचार सुनावणेवाला दुष्ट होवै, यात जी वतें पुत्रके पिताकू कह है तेरा पुत्र मरगया औ मरे पुत्रके पिताकू कहै तेरा पुत्र शरीर निरोग है, बड़ी विभूति• प्राप्त हुआ है, थोड़े कालमै हस्ती आरूढ बड़े समाजतें आवैगा । ता वंचक वचनकू सुनकै जीवते पुत्रका पिता रोव है बड़े दुःखकू अनुभव कर है औ मरे पुत्रका पिता बड़े हर्षकू प्राप्त होवै है । इस रीतिसँ देशांतरविषे ईश्वररचित जीवतेका सुख हो नहीं, तैसें दूसरेका ईश्वर ..