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वि० ५. . जगदात्मवर्णन. १०६ इन षट् उर्मीते रहित विद्वानकू प्रतीत होवै है, याते आत्माका असंग ब्रह्मरूपसे जो ज्ञान सो निवृत्त होवै नहीं । देशकालवस्तुकृत परिच्छेदते रहितको अनंत कहे हैं। ब्रह्मरूप आत्मा श्रुतिमें व्यापक कहा है, याते देशकृत परिच्छेदते रहित है औ अनित्य वस्तुका कालते अंत होवै है आत्मा नित्य है. याते कालकृत परिच्छेदते रहित है औ आत्मा सर्वरूप है, याते वस्तुकृत परिच्छेदते रहित है। परिच्छेद नाम अंतका है ॥६॥
अबप्रसंग प्राप्त केवल स्थूलशरीरके धर्म दिखावै हैं:दोहा-जन्म अस्ति अरु वृद्ध पुनि, विप्रनम छय तननाश ॥षट् विकार ये देहके, आत्मा स्वयंप्रकाश ॥७॥
टीका:-अर्थ स्पष्ट ॥७॥ हे भगवन् ! मैं जन्मता मरता हूं इस रीतिसे जन्मादि षट्विकार मुझमें प्रतीत होते हैं, आप कैसे इनका निषेध करो हो ? तहां गुरु कहे हैं:दोहा:-चिदाकाश अद्वय अमल, शांत