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विचारमाला. वि०.५.. एकतव रूप ॥ जन्म मरण कित संभवै, कित हंकार अनूप ॥८॥ टीका-हे शिष्य ! जो चेतन आकाश द्वैतते रहित औ मलते रहित औ सृष्टि आदिकोंके क्षोभते रहित औ सजातीय विजातीय स्वगत भेदरहित एक चिद् वस्तु है, सो तेरा आत्मा है, तामें जन्ममरणका संभव कैसे होवै औ उपमासे रहित तेरे आत्मामें मैंजन्मता मरता हूं यह अहंकार कैसे संभवै ? इहां जन्ममरणके निषेधते समग्र विकारोंका निषेध कीया ॥ ८॥
हे भगवन् ! ए षटूविकार स्थूल देहके धर्म हैं, मेरे नहीं, परंतु मैं सुखी मैं दुःखी या रीतिसँ सुख दुःखकी प्रतीति मेरे आत्मामें होवे है, याते मैं भोक्ता हूं ? तहां गुरु कहे है:दोहा-विषय भोग मुस्थान तन, साधक इंद्रिय जोय ॥ याही भोक्ता बुद्धि मन, तू न चतुष्टय होय॥९॥ . ...