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२४ विचारमाला. वि०२. हिये धारणेवाले जो देह प्राण मन सो जीते हैं, मान कहिये वेदरूप प्रमाण तामैं कवि कहिये तात्पर्य रूपकर सर्व अर्थके जाननेवाले हैं, मानद कहिये व्यवहारदशामैं स्वभिन्न सर्वको मान देवै हैं औ अपमान नहीं चाहे. हैं औ सत्यसंभाषणमैं निश्चय हैं काहेत ? सत्यमूलकही सर्व धर्म हैं ऐसे जाने हैं, मिथ्या संभाषण जिन दूर भया है, करुणारूप जो शील कहिये आचार ताके नि.. धान कहिये खानी है,काहेरौं पामर औ विषयी औजिज्ञासु जो पुरुष, तिन सर्वपर कृपा करै हैं । इति भावः ॥४॥ . पुनः वही कहै हैं:- ... .. दोहा-उस्तुति निंदा मित्र रिपु, सुख दुख ऊंच रु नीच ॥ ब्रह्मा तृण अमृत गरल, कंचन काच न बीच ॥५॥ .......
टीकाः-स्तुति कहिये स्वनिष्ठ गुणोंका अन्यकर , परिकथन तथा स्वनिष्ठ अवगुणोंका अन्यकर परिकथनरूप निंदा औ प्रतिउपकार कर्ता मित्र तथा. आपणे-: